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मेरे उन सपनों का कोई मतलब तो रहा होगा

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कैटेगिरी- मेरी डायरी कुछ लोग कहते हैं कि सपने ऐसी किताब हैं जिन्हें नींद के दौरान पढ़ा जाता है। यह किताब पहले से लिखी हुई और तैयार होती है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि इसे हम पूरी पढ़ लें। ज्यादातर ऐसी किताबें अधूरी ही रहती हैं। मनोविज्ञान, धर्मग्रंथ और कहानियां अपने नजरिए से सपनों का मतलब बताते हैं। अक्सर हम बचपन से ही सपने देखते रहते हैं। इनमें से कुछ यादगार बन जाते हैं तो कुछ अगले दिन चाय के दौरान भी याद नहीं आते। मैं नहीं जानता कि सपने क्यों आते हैं, और उनका कोई मतलब होता भी है या नहीं। मुझे बहुत कम सपने आते हैं लेकिन तीन सपने ऐसे हैं जो मैंने कई बार देखे हैं। मैं उन्हें पांच साल की उम्र से ही देखता आ रहा हूं। इस बात का जिक्र करना चाहूंगा कि मेरे सभी सपने सच नहीं होते। ईश्वर न करे कि हर व्यक्ति का हर सपना सच हो, क्योंकि अगर ऐसा होता तो दुनिया में भारी बवाल हो जाता। मगर मैंने कई सपनों को सच होते देखा है। जब वे हकीकत में तब्दील हुए तो किसी साफ दिन की रोशनी की तरह लगे। एक बार मेरे गांव के श्मशान घाट में कोई निर्माण कार्य चल रहा था। मैं यूं ही उसे देखने के इरादे

हम आज तक इस सवाल पर क्यों लड़ रहे हैं कि अकबर महान था या नहीं?

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कुछ दिनों पहले यह तस्वीर मुझे एक वेबसाइट पर मिली। यह नजारा अमरीका की एक सड़क का है जिसे स्वामी विवेकानंद का नाम दिया गया है। पास में अमरीकी झंडा लहरा रहा है। मैं अमरीका की वैश्विक नीतियों का प्रशंसक नहीं हूं लेकिन इसके लोकतंत्र की सदैव तारीफ करता हूं। अमरीका और ब्रिटेन दो ऐसे देश हैं जिनका लोकतंत्र पूरी दुनिया के लिए मिसाल है। चीन की शासन पद्धति इससे कुछ अलग है लेकिन एक खास मामले में मैं चीन का भी प्रशंसक हूं। अगर ब्रिटिश शासन के समय ब्रिटेन की महारानी या वहां के प्रधानमंत्री से पूछा जाता कि आपका सबसे बड़ा दुश्मन कौन है, तो उनका जवाब होता कि भारत में रहने वाला मोहनदास कर्मचंद गांधी नाम का एक वकील हमारे साम्राज्य का सबसे बड़ा दुश्मन है। नाक में दम कर रखा है। न उसे शानो-शौकत पसंद है और न ही उसके पास घातक अस्त्र हैं। न वह झुकता है और न डरता है। लोग उसका नाम सुनकर पागल हुए जा रहे हैं। जिधर लाठी लेकर चलता है, हुजूम उमड़ आता है। आखिर उसके पास ऐसा क्या है? लेकिन उसी मोहनदास कर्मचंद गांधी की प्रतिमा आज ब्रिटेन की संसद में स्थित है। आज ब्रिटेन का प्रधानमंत्री उसके सामने सिर झुकाता

मत बांटो मेरी दिल्ली को, मेरे घाव अभी तक गहरे हैं

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बहुत पहले से ही मेरा इरादा पूरी दुनिया घूमने का रहा है, मगर आज तक मैं दिल्ली भी नहीं देख सका। मेरा सफर गांव से शुरू हुआ और अभी जयपुर तक पहुंचा है। इससे आगे रास्ता कहां निकलेगा, रब ही जानता है, लेकिन दिल्ली आज भी उन शहरों की सूची में शामिल है जिन्हें मैं देखना चाहता हूं। यही वो शहर है जिसकी गलियां पूरे हिंदुस्तान की किस्मत का फैसला करती आई हैं। एक जमाना था जब हमारी फौजें यहां से निकलतीं तो दुनिया के तख्त और ताज थर्राते, मगर वह भी एक जमाना था जब आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर ने नम आंखों से इस शहर को अलविदा कहा और यहां की मिट्टी तक के लिए तरस गए। शायद वो मिट्टी नसीब हो जाती तो उन्हें मौत कुछ सुकून से आती। दिल्ली खुद में ही एक दुनिया है जिसकी मिट्टी में कई राज दफनाए गए हैं। आज इस शहर में कहीं दहशत का सन्नाटा है तो कहीं सन्नाटे की दहशत है। दिल्ली की फिजा अब बदली-बदली सी नजर आती है। न जाने दिल्ली को किसकी नजर लग गई? कहने को तो यह हिंदुस्तान का दिल है और जो इस शहर में रहता है, यकीनन उसे बड़े दिलवाला होना चाहिए। आज इस शहर की कुछ गलियों से उन्हीं नारों का शोर है जिसने मेरे प्यारे वतन क

मारवाड़ी में पढ़िए आचार्य महाप्रज्ञ जी के उपदेश

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आचार्य महाप्रज्ञ जी महान संत थे। उनका आविर्भाव झुंझुनूं के टमकोर नामक स्थान पर हुआ। जब मैं स्कूल में पढ़ता था उन दिनों आचार्य जी के प्रवचनों पर आधारित एक शृंखला -' तत्व बोध' राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पृष्ठ पर छपती थी। मैं उसका नियमित पाठक था। महाप्रज्ञ जी के प्रवचनों की विशेषता है - गंभीर से गंभीर विषय भी आपको बहुत सरल भाषा में मिलेगा। पत्रिका में छपे उनके कर्इ आलेखों का मैंने संग्रह किया था आैर बाद में उनका मारवाड़ी में अनुवाद कर एक र्इबुक तैयार की जिसका नाम है - चिंतन को चौरायो। इसमें आचार्य महाप्रज्ञ जी के उपदेशों में शामिल की गर्इं कुछ ज्ञानवर्द्घक कथाएं हैं। पढ़िए यह किताब.. - राजीव शर्मा - गांव का गुरुकुल से Like My  Facebook Page

श्रद्धेय कुलिश जी: लेखन के क्षेत्र में जिन्हें मैं आदर्श मानता हूं

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साथियो, आज आपके लिए लाया हूं श्रद्धेय श्री कर्पूरचंद्र कुलिशजी पर मारवाड़ी में लिखी मेरी एक कविता। कुलिशजी का नाम ही उनका परिचय है। जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया था तब हिंदी पढऩा राजस्थान पत्रिका से सीखा था। उस समय कुलिशजी के विभिन्न लेख और पोलमपोल नाम से एक कविता रोज छपती थी (जो आज भी प्रकाशित होती है)। सुबह हॉकर अखबार डालकर जाता, तब मैं सबसे पहले पोलमपोल ही पढ़ता था। इसी से मुझे भविष्य में लिखने की प्रेरणा मिली। वास्तव में कुलिशजी का संपूर्ण जीवन एक ऐसे नायक की कहानी है जिसे खुद की काबिलियत पर जितना भरोसा था, वैसा ही भरोसा उन्होंने उन लोगों में भी पैदा किया जो इस यात्रा में उनके साथी रहे। एक नायक और साधारण मनुष्य में यही फर्क होता है। नायक साधारण मनुष्य को भी धुन का धनी बना सकता है। पढि़ए, कुलिशजी को समर्पित यह कविता- हर पानै मं मरूधर री पीड़ा, हर आखर मं सिंह हुंकार। ले सांच री लाकड़ी, यो हर गोखा रो चौकीदार। करके चेत चितार्यो गैलो, जद सगळा चाल्या ईकै लार। बखत पड़्यो जद बणगो पीथळ, कदे करी ना यो उंवार। हक री कलम सूं जग मं, कर दियो ऊंचो नाम। हर कूणै मं म्हारो साथी,

उड़ने से पहले कट गई काका की पतंग

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मकर संक्रांति मेरे पसंदीदा त्यौहारों में से एक है। इस दिन मैं नहाने की छुट्टी करता हूं और पूरा दिन छत पर बिताता हूं। तब मैं पूरे परिवार का पहला व्यक्ति होता हूं जो सबसे पहले दिन की शुरुआत करता है। वह दिन ढेर सारे पतंगों और ‘वो काटा, वो मारा’ के शोर में बीतता है। इसके अलावा मैं मकर संक्रांति से जुड़े रहस्यों के बारे में बहुत कम जानता हूं। यह एक संयोग ही है कि मेरे जीवन में मकर संक्रांति से जुड़ी कई घटनाएं हैं जो इस दिन को और मजेदार बनाती हैं। साल 1997 की मकर संक्रांति इस मामले में अपवाद है, क्योंकि उस दिन मां ने मेरी पिटाई की थी। इसके अलावा ज्यादातर संक्रांतियां बहुत अच्छी बीतीं। यहां मैं आपको इस दिन से जुड़ी कुछ खास घटनाएं बताने जा रहा हूं। जरा गौर से सुनिए... लौटके ... घर को आए मेरे एक काका हैं जिन्हें पतंगबाजी का बेहद शौक है। हर साल रामलीला, रावण दहन और फाग गाने में भी उनकी भूमिका सराहनीय होती है। एक बार काका ने प्रतिज्ञा की कि इस बार वे गांव में सबसे ज्यादा पतंग काटेंगे। इसके लिए उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से रणनीति बनाई। शहर से महंगा धागा मंगवाया गया। रात को पुराने घर

नजर उठाकर देख ले हिंदुस्तान, तेरा कोई दोस्त नहीं है

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पठानकोट की गलियों से आती गोलियों की आवाज अब खामोश हो चुकी है। यहां की हवा सन्नाटे से भरी है और अखबार हमारे खून से। एक अजीब किस्म की बेचैनी है, एक खास तरह की उदासी है। आखिर मेरा हिंदुस्तान इतना उदास क्यों है? हर साल दहशत के दुकानदार हमारे देश में नफरत का सौदा करते हैं। बेकसूर और मासूम लोगों को मौत के घाट उतारते हैं। हम दुश्मन को सबक सिखाने के दावे करते हैं, सरकार हमसे वायदे करती है और धीरे-धीरे हम सब भूल जाते हैं, क्योंकि हमें ऐसे ही किसी एक और धमाके का इंतजार होता है। आखिर हम इतने लाचार क्यों हैं? धमाके तो पेरिस में भी हुए थे जिसका हमने और पूरी दुनिया ने मातम मनाया था। लोगों ने फ्रांस के पक्ष में अपनी फेसबुक फोटो का रंग बदला, मगर पठानकोट पर हमले के बाद सिर्फ हमारे देश में ही इसे लेकर गुस्सा है। दूसरे देशों ने तो सिर्फ अपने बयान दिए और आधी से ज्यादा दुनिया तो भूल गई होगी कि भारत में कहीं कोई हमला भी हुआ था। शायद धमाकों में मौत होना हमारे लिए कोई नई बात नहीं है। दुनिया कहां तक हमारी फिक्र करेगी, क्योंकि इस देश के लोगों को एक दूसरे की फिक्र नहीं है। पठानकोट के दर्द को सिर्फ हिं